प्रिय अतुकांत,
शुभाशीष।
गुलबर्गा से वापसी में ट्रेन में कवियों की साहित्य चर्चा से जाना कि तुम्हारा पिता चिरंजीलाल 'कौतुक' सदा के लिए नहीं रहा। मेरा तो हमउम्र था। बेटे, पके फल की सद्-गति समझो। छंद का पक्षधर कहीं अतुकांत से तो नहीं हार गया? मुक्ति संग्राम में विजय के लिए बधाई।
पुत्र, नर हो न निराश हो कभी। वह क्षति दे गया, तो तुम भी कोई कम पूर्ति नहीं हो। जबतक तुम कवि-कम-आयोजक हो, देश के हर बड़े कवि के लाड़ले बेटे और हर छोटे कवि के लाड़ले बाप रहोगे। माताजी अभी हों, तो प्रणाम कहना।
शुभेच्छु,
दीनानाथ 'दीन'
प्रिय अतुकांत,
नमस्ते।
डाक से तुम्हारे कुम्भकर्ण मेले वाले अखिल भारतीय कविसम्मेलन के आमंत्रण की बाट जो ही रहा था कि तुम्हारा शोक संदेश मिला। दोस्त, तुम्हारे पिताजी का असामयिक निधन, लगता है मेरी भी क्षति है। कविसम्मेलन में मेरा पूरा दो साल का गेप हो गया था। सोच था, इस बार तो याद करोगे ही। तुम्हारे पिताजी से ऐसी उम्मीद तो मुझे भी नहीं थी। जाते-जाते वे एक प्लस पॉइन्ट जरूर छोड़ गए हैं कि उनके बारह दिन मेले वाले कविसम्मेलन से पूर्व ही निपट जाएंगे, क्योंकि इतना भव्य एवं गरिमामय कविसम्मेलन संभालना तुम्हारे और सिर्फ तुम्हारे ही वश की बात है।
अन्यथा न लो, तो एक श्रेष्ठ सुझाव है। क्यों नहीं इसी आयोजन से पिताजी के नाम पर कोई छोटा-मोटा साहित्यिक पुरस्कार स्थापित कर दो। मन हो, तो शुरुआत भी मुझसे ही की जा सकती है।
कविसम्मेलन में बुलाना हो, तो अविलम्ब इनविटेशन भिजवा दो। नहीं तो सीजन पीक पे है, डेट कहीं और फंस सकती है।
तुम्हारे पिताजी की स्मृति रह-रहकर कर रहा हूं।
तुम्हारा,
भुवनभास्कर 'जुगनू'
भाईवर अतुकांत जी,
करबद्ध।
हतभाग हाय हम छले गए।
देखो कौतुक जी चले गए।।
पता करने पर पता चला कि पिता परलोक पधार गए। भगवान ने भारी करी। गत वर्ष आपके साथ ही उनके भी आकाशवाणी में दर्शन किए थे। काव्य में श्रद्धेय कौतुक जी की क्या गजब की पकड़ रही? माइक पर खड़ा हो चुकने के बाद उन्हें पकड़-पकड़कर ही बिठाना पड़ता था।
मैंने तो आकाशवाणी में जाना बंद सा ही कर रखा है। रेडियो वाले वर्ष भर में एक-आध तो कांटेक्ट भिजवाते हैं। ऊपर से कहते हैं कि नई रचना लाओ। अब यह तो आप भी जानते ही हैं कि मंच के कवि हर साल नई रचना कहां से लाएं? आपको तो खैर पिताजी का सहारा रहा। हमें तो इधर-उधर से खुद ही लिखनी पड़ती थीं। पिताजी के अचानक चले जाने से लेखन संबंधी दिक्कतें आपके सम्मुख भी आएंगी।
सरस्वती हौसला देगी। इसी आशा और विश्वास के साथ।
सदैव ही,
दयाराम 'निर्दय'
आदरणीय श्री अतुकांत जी,
चरण-स्पर्श।
मोबाइल का मैसेज बॉक्स हर्ष से खोला, तो विषाद से भर गया। आपके पिताश्री के बैकुंठवास ने फिर सिद्ध कर दिया कि जगत मिथ्या और ब्रह्म ही सत्य है। पहले पहल तो आपके एसएमएस को जोक समझा, क्योंकि सूचना क्रांति का भरपूर लाभ लेते हुए कवियों द्वारा परस्पर भेजे गए मैसेज जोक्स ही होते हैं। फिर, पूज्य मुखबिर गाजीपुरी जी को फोन लगाकर कन्फर्म किया।
मैं चिंतित हूं। अब तो निश्चित ही आप मुखबिर जी के प्रोग्राम में नहीं जा पाएंगे। समय से अपनी स्थिति उन्हें स्पष्ट कर दें, ताकि वे बेचारे अंधेरे में न रहें तथा स्थानापन्न मुझे बुक कर सकें। इस काम को प्रायोरिटी पर लें। पिताजी के क्रिया-कर्म की सौ उलझनें रहेंगीं, मैं भुगत चुका हूं।
थोड़ा लिखे को ज्यादा समझें। फोन भी करूंगा।
अकिंचन,
रंगलाल 'बेरंग
डियर अतुकांत,
नमस्कार।
फ्लाइट से उतरते ही ज्ञात हुआ तेरे फादर की डेथ हो गई। यार अचानक यह क्या कर लिया?
कल मॉर्निंग फ्लाइट से ही न्यूयॉर्क से लौटा हूं। एक जान सौ लफड़े। अभी फिर फ्लाइट से सिंगापुर जाना है। फ्लाइट में एयर होस्टेस से चुहल के दौरान भी मन में खिन्नता बनी रही। मैं हंड्रेड परसेंट मानता हूं कि यह सब तेरे फादर के नहीं रहने का पूर्वाभास था।
देश क्या अब तो विदेशों में भी मैंने देखा आजकल कविसम्मेलनों में चुटकलेबाजी ज्यादा होने लगी है। कविता सचमुच संकट में है। हां, गत माह तुम्हारे बीरबलपुर वाले प्रोग्राम में तुम्हारे सारे लतीफे अवश्य औरों से हटकर थे। लोग क्या हंसे? मैंने भी दिमाग में फीड कर लिए हैं। आश्वस्त रहो, तुम्हारी उपस्थिति में भी तुम्हारा नाम लेकर ही सुनाऊंगा। मेरा भी फर्ज बनता है कि जिसने मूल परिश्रम किया है, उसका यश बढ़ाऊं।
बताना अस्थिविसर्जन हेतु तुम ही जाओ, तो श्री प्रलाप कानूनगो जी से निवेदन कर, रुड़की में तुम्हारी एक काव्य संध्या जमा दूं। मन भी और सा हो जाएगा तथा किराये के चार पैसे भी निकल आएंगे। तुरंत सूचित करो कि कितने पेमेंट तक में बात करूं तथा रुड़की में काव्यपाठ अस्थियां लेकर जाते में कर सकोगे या विसर्जन कर आते में?
जिन्हें जाना था, चले गए। साथ तो मरा नहीं जाता। खुश-खबरी यह है कि जल्दी से जल्दी अपना पासपोर्ट बनवालो। न्यूयॉर्क में तुम्हारा नाम दे आया हूं।
तुरंत एयरपोर्ट के लिए निकलना है। शेष बाद में।
शुभाकांक्षी,
मांगीलाल 'सूरज'
छोरे राम-राम।
सुना, तेरा बाप मर लिया? तूने तो खैर सुन ही लिया होगा? वैसे भी मौत की खबर कभी झूंठी निकलती नहीं है।
कई कवियों की एक कविता है- एक व्यक्ति मर गया। लोग उसे अर्थी पर लिटाकर फूंकने ले जा रहे थे। रास्ते में किसी ने मृतक के बेटे से पूछ लिया कि यह मर गया क्या? उसने जवाब दिया कि नहीं। हम तो इसे बाजार घुमाने ले जा रहे हैं। सांझ को घर छोड़ देंगे और तू कहे, तो तेरे घर छोड़ दें?
उपरोक्त कविता से प्रेरणा मिलती है कि आया है सो जाएगा- राजा रंक फकीर। सो लाइटली लो और मस्त रहो।
मुझे तेरे पिता के मरने की सूचना फोन कर मांगीलाल 'सूरज' ने दी। वह दिन-रात मुझे फोन करता रहता है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि हम दोनों आमने-सामने खड़े हैं और परस्पर एक-दूसरे से फोन पर बातें कर रहे हैं। वह विभिन्न जानकारियों के विषय में मुझे रुचिपूर्वक तथा मनोयोग से अवगत कराता रहता है। जैसे धृतराष्ट्र को संजय ने महाभारत का आंखों देखा हाल बताया था।
मांगीलाल 'सूरज' काव्यमंच का हीरो है। मांगीलाल को मांगीलाल 'सूरज' किसने बनाया? सर्वविदित है, मोतीलाल 'सूरजमुखी' ने। क्योंकि उसके पास कविता भले ही बिल्कुल नहीं है, कविसम्मेलन जुटाने की अद्भुत क्षमता है। मंच पर बिना कविता वाला ऐसा स्टार पोएट आजतक नहीं आया। अन्य कवि जितना कमाते हैं, उतना तो मांगीलाल 'सूरज' फोन और हवाई यात्राओं पर लुटा देता है। उसके पास नैनवां से भी कविसम्मेलन का आमंत्रण आए, तो आयोजक से उसका पहला ही प्रश्न होता है कि नैनवां में एयरपोर्ट है क्या? हमारी मैत्री तो इतनी प्रगाढ़ है कि एक द्वारा एकत्र किए लतीफे दोनों मिल-बांटकर सुना लेते हैं।
देश के कई कवियों ने उस पर आरोप लगाया है कि उसने उनकी कविताएं टीवी शो में पढ़ दीं और उनके नामों का जिक्र तक नहीं किया। मैं इसे ईर्ष्यालुओं का दुष्प्रचार मात्र मानता हूं। टीवी पर उसके मुख से मैंने भी अपनी कविता सुनी है, जबकि अपना नाम नहीं सुना है। देश के कवियों को उल्टा उसका अहसानमंद होना चाहिए, क्योंकि साहित्य में चोरी की तो दीर्घ परम्परा रही है, किन्तु साहित्य में डाका प्रथा तो मांगीलाल 'सूरज' ने ही प्रारम्भ की है।
कुल मिलाकर मेरे लेखन का सार यही है कि तुम भी मांगीलाल 'सूरज' बनो। हम दोनों से तीन बातें सीखो। मैनेजमेंट, मार्केटिंग और पॉजिटिव होने की बजाय दिखना। पिता के अभाव से उपजा खालीपन इन्हीं तरकीबों से दूर किया जा सकेगा। कवि कहलाना चाहते हो, तो कविसम्मेलन खड़े करो।
जो मुझे कविसम्मेलन में बुलाए, उसे मैं विदूषक होने पर भी कवि मानता हूं तथा जो मुझे नहीं बुलाए, उसे कवि होने पर भी विदूषक। तुम कब बुला रहे हो?
मांगीलाल 'सूरज' का फोन आ रहा है, सो फिलहाल इतना ही।
हितेषी,
मोतीलाल 'सूरजमुखी'
प्यारे अतुकांत जी,
प्रेमालाप।
दद्दा के देहावसान से हैरान रह गई! सचमुच कौतुक जी का निधन मुझे व्यक्तिगत रूप से विरह व्यथा दे गया। हाय! कितने उदारमना थे वे। स्वयं ने जीवनभर रक्षाबंधनी गीत गाए तथा शृंगार मुझ जैसों के वास्ते रचा। आपको तो पता ही है कि मेरे मात्र तीनों गीतों स्वर्णभस्म, शिलाजीत और खजुराओ के भाव और भाषा पूज्य कौतुक जी के ही मस्तिष्क और कलम की उपज हैं। कवयित्रियों के तो वे इतने अंतरंग प्रशंसक रहे कि कवयित्री किसी भी वय की हो, सुनना तो दूर, उसे देखते ही वंसमोर-वंसमोर कह उठते थे। प्रथम भेंट में ही मेरी पीठ पर हाथ फेरकर दिए उनके आशीर्वाद की सिहरनें मुझ में अभी तक अक्षुण्ण हैं। लेखन को परे रख दें, तो आपके पिताजी शर्तिया आप पर ही गए थे।
मानो, तो मेरी ओर से उत्तम सलाह है। उनकी पहली बरसी पर हमें एक कवयित्री सम्मेलन रखना चाहिए, ताकि उनकी अतृप्त आत्मा को शांति मिल सके। गाते-गाते मैं भी इन दिनों लिखने की सोचना सीख गई हूं। एक मुखड़ा माइंड में है- 'बहुत देर कर दी हुजूर जाते-जाते'। तर्ज वही मूल फिल्म तवायफ वाली रहेगी। श्राद्ध पर गा दूंगी, तो श्रद्धा गीत हो जाएगा। आपको मेरे गले की सौगंध है, मुखड़े का जिक्र भूल से भी कहीं और मत कर देना, नहीं तो सक्सेना जी ले उड़ेंगे।
आपसे एक शिकायत सी भी है। यों तो मिलने-जुलने पर शकुंतला-शकुंतला रटते रहते हो, पर जब किसी कविसम्मेलन में मुझे बुलाने की बात आए, तो दुष्यन्त हो जाते हो। बात मन की है, सो मन से मत लगा लेना।
पत्र और व्यवहार अनवरत रहेगा।
सिर्फ आपकी ही,
रस भारती।
********
No comments:
Post a Comment